हां ! मैं हूँ बहुत तन्हा;
मेरा बिस्तर तन्हा;
उसकी हर इक सिलवट तन्हा ;
मैं -बिस्तर -सिलवट सब हैं साथ घुले मिले ;
क्यूँ मेरी तन्हाई नहीं घुल पाती है ?
मेरे घर की चारों दीवारें हैं साथ
पूरी छत को सम्भाले ;
मगर चारों खड़ी हैं तन्हा !
बरसों से बन्द पड़ी खिड़कियाँ ;
खिड़कियों पर जंग खायी छिटकनियां ;
क्यूँ चुप पड़ी हैं तन्हा ?
क्यूँ नहीं खुल पाती हैं ?
हमारी रिश्तेदारी
केवल अपनी अपनी तन्हाईयों से है !
हमारी शिकायत
एक दूसरे के बीच की खाईयों से है !
शाम को चाँद आता है तन्हा ;
सुबह से पहले जाता है तन्हा !
पूरी तन्हाई टूट कर बिखर है जाती
जब सुबह सुबह बुलबुल गाती है !
मैं कभी खुश नहीं रहा अपनी तन्हाईयों से ;
बिस्तर -सिलवट -खिड़की -छिटकनी-खाईयों से !
मैं एक भी आंसू नहीं गवांऊगा ;
मेरी तन्हाईयों के तमाशबीन
केवल तुम रोओगे ;
जिस दिन मैं तुम्हें तन्हा कर जाऊँगा !
पूरी कायनात से टपकती रिसती
सख्त सूखी तन्हाईयां ;
चिपक गई हैं मैल की मानिंद ;
क्यूँ नहीं धुल पाती हैं ?
जबकि मुझे भी रोज सुबह सुबह ;
गाती हुई बुलबुल भाती है !!
----------------- तनु थदानी
No comments:
Post a Comment