जब सम्भोग हमारे प्रेम का परिचायक बन जाता है ,
हम वही रहते हैं ,
प्रेम भी वही रहता है ,
मगर दिल से इक समुन्दर बहता है ,
जिसमे नहा कर हमारा वजूद खारेपन से सन जाता है !
परियाँ अलग कहीं नहीं रहतीं ,
वो हमारे जेहन में रहतीं हैं !
हमारी सोच में मसली जाती परियाँ ,
कराहती हैं , छटपटाती हैं ,
मत काटो हमारे पंख , बस यही कहतीं हैं !
आखिर हमारे ही हाथों से किया गया ,
हमारी आँखों को नज़र क्यूँ नहीं आता है ?
शरीर लिपटता है शरीर से ,
शरीर के साथ शरीर सोता है ,
जब हम बिस्तर पे होते हैं ,
तब प्रेम ज़मीन पे होता है !
अंततः कहानी ये होती है , कि ,
ना हम हो पाते हैं सम ,
ना दिल कुछ भी भोग पाता है !
हमें लौटाने होंगे परियों के पंख ,
तभी वो जेहन से निकल हमारे सामने आयेंगी !
हमने ही प्रेम को सम्भोग का मोहताज बनाया है ,
सच ये है की , जीवन की तमाम बारीकियों को मात देता प्रेम ,
हमारी - तुम्हारी आँखों से ही छन जाता है !!