Saturday, October 18, 2025

शातिर दिमाग से खेलते हैं

शातिर दिमाग से खेलते हैं
शातिर  दिमाग  से  खेलते  हैं ,
नादान   दिल  से  खेलते   हैं ,
बेवकूफ  शरीर  से  खेलते  हैं ,
हम  खुद  के  भीतर  भी
इन  तीनो  स्थितियों  को
अपनी  मृत्यु  तक  झेलते  है !


हम  नहीं  हैं  किसी  भी  पशु  के  विकास - यात्रा  के  यात्री
हमने  खुद  के  भीतर   पशुता का  विकास  किया  है !
बेहतर हैं  पशु  हमसे
कि स्पष्ट  है  उनका लक्ष्य -भोजन ,
मगर  हमारे  लक्ष्य तक  नहीं  हैं  निश्चित !


हम  कपड़े  ओढ़  कर  शर्मिन्दा  हैं ,
मृत  भावनाओं  के  साथ  ज़िंदा  हैं ,
भीड़  मे  अकेलेपन  के  साथ  हैं ,
अकेलेपन  में  यादों  से  खेलते  हैं !
मात्र  साँसों  से  दोस्ती  के  लिये ,
रोज नया  आवरण , खुद  के  ऊपर  बेलते  हैं !


हे  ईश्वर  !
क्यूँ  है  हमारी  जीवन - यात्रा   अनिश्चित  ?
क्यूँ   हमारे  साथ   चलती  एक  निन्दा  है ?
क्यूँ  हैं  बनाते खुद  के  भीतर  खाई  अहंकार  की ?
आखिर क्यूँ  खुद  ही  को  उसके  भीतर  ढकेलते  हैं ??
-----------------------------  तनु थदानी

Friday, October 17, 2025

असंभव होती हमारी जागरूकता

असंभव   होती  हमारी  जागरूकता 
हमारी   नीयत    के खोखलेपन  का  सबूत  है !

कुकुरमुत्ते   की  मानिंद  उगी  टोपियों  की  जड़ 
यकानक  राजनीतिक   क्यूँ हो   गई ?
हमारे  बच्चे  की  भूख  तो  सामाजिक   थी ना 
फिर  क्यूँ  बन  गई  नारा ?
अनशन  हुयें  , हड़ताल  हुई  ,समझौते  हुये ,
खिलाड़ी  अपने   खेल से  पुर्णतः  संतुष्ट  थें कि 
किसने   किसका  खेल  बिगाड़ा !

कल   फिर  वोटिंग  होगी 
नहीं मालूम  कौन  जीतेगा ,
पर मालूम   है  की  हमारी   हार होगी !

खूब    घूमते  हो  ना ,
कभी  खुद  के  पासपोर्ट  पर 
अपने  दिल  का  वीजा  लो 
पूरी यात्रा  में  निः शुल्क  है  आना- जाना 
बस  एक  निवेदन  है -
यात्रा  में   अगर  भारत  नजर  आये  
तो  उसे  जरुर   बाहर  लाना !!

हमने बड़े करीने से

हमने  बड़े  करीने  से  
सजा  रखी  हैं  अपनी  दूरियाँ !

कभी आत्ममुग्धता  की  छत  पे 
अकेले  बैठे लाखों - करोड़ों  तारों  को  देखते  हैं 
कभी नीचे  आ लाखों - करोड़ों  के  हुजूम के जश्न   में  हो जाते  है  शामिल 
लेकिन  कोई  नहीं  होता  किसी  के  साथ !

दिल से  निः हत्थे  हम 
हँसते  - रोते  हैं  नाप - तौल  कर ,
 क्या कोई   बता  पायेगा  कि   जाना  कहाँ  है ??

दोमुहें  पैजामे  को  तर्कों  की  डोरी  से  बाँध 
पूरी  करते  हैं  जीवन-  यात्रा !
मुहावरे  सा  व्यक्तित्व  ले  कर  जीते  है 
छोड़  जाते  हैं  दुनिया  से  विदा   होने से  पहले 
अनबूझे  अक्षरों  पे  किस्म-किस्म  की  मात्रा !

चलो  दूरियों  से  एक  समझौता  करते  हैं -
सर्वप्रथम  मैं  को  मारते  हैं  फिर  हम  मरते  हैं !
समय  की  बलिष्ठ  भुजाओं के  आलिंगन  से  मुक्त 
इक दूजे  का  हाथ  थाम  चलने  की कोशिश  करते  है  !

प्रिय !  हम  अब  भी  जीते  हैं 
तब भी  जीयेगे ,
इक दूजे  की  साँसों  में  ही  हो  जायेगे  अमर 
जब  खुद  ही  खुद  की  दूरियों  को  पीयेगें !!

आज सुबह से ही परेशान हूँ मैं

आज  सुबह   से  ही  परेशान   हूँ  मैं ,
अपनी  अजन्मी  कविता में  बिंब को ले कर !

पुरानी  चप्पलों  को  बिंब   बनाया  नेताओं  का 
घूर  पड़ी  सारी  पुरानी   चप्पलें  घर  की -
क्या   तकलीफ   दी  हमने   आपके  पैरों  को  ??
बूढी  हैं , पुरानी  हैं , मगर  काटती  तो नहीं हैं आपको !

खोटे  सिक्कों  को  टटोला 
खनक  पड़ें 
बोले - मत  बनाना  हमें  बिंब   इन  नेताओं  का 
हमारा  यूँ  तो  कोई  मोल  नहीं 
मगर  वज़न  कर  के  बेचोगे  तो  इन  नेताओं  से  अधिक   ही पाओगे !

यहाँ  तक  की  रद्दी  अखबारों  ने   भी मना   किया  मुझे 
कहा- नाम  रद्दी  है  हमारा 
खबरदार ! जो नेताओं  से  तुलना  की,
हम  बिकते  जरुर  है  मगर  राष्ट्र -हित  में 
वापस  आतें  हैं  नए  रूप  में !

घर  के  कुत्ते  ने  मासूमियत  से  कहा -
हमने  तो   आपका नमक   खाया  है  मालिक 
नहीं  बनाना  बिंब   हमें  नेताओं  का   
हमने  कभी  कोई  नहीं  की  गद्दारी 
युगों  का   देख  लो  इतिहास
हमारी  वफादारी  में कभी  कोई   कमी नहीं  आई ,
अगर  हमारे  जैसे  भी  होते ये  नेता  
तो  घुस  नहीं  पाती  हमारे  घर  में  एफ  डी  आई !!

तुम तो धूप थी जाड़े की

तुम  तो   धूप   थी  जाड़े  की 
जिसको  मैंने  प्यार  से 
पकड़  रखा  था   अपनी दोनों  हथेलियों  के  बीच !

जो  हमसे  बड़े  थे 
सभी  हँसे  थे 
कि  धूप   तो  हथेलियों  में  भरी  नजर   आती  है
अंततः  फिसल   जाती  है !

नहीं  फिसली  धूप,
उम्र  की  गर्मियों  में 
भरी  दोपहरी जब
हथेलियों  में  भरी  धूप  ने 
जला  डाला  मुझे 
तब लगा 
नहीं  है   वो  मेरी धूप 
ये  तो   कोई  और  है 
फिर  कहाँ  गई  वो   मीठी  धूप ??

कोई  नहीं   रोया  की  धूप  की  मिठास   खो गई 
गौर  से  देखा  जली   हथेलियों  को 
जहां  धूप  से  चिपक  मेरी  मुस्कान  सो  गई !

सच  कहूँ 
धूप   को  हथेलियों  में  पकड़ना   ही गलत  था 
धूप   को  तो   आलिंगन  में  रखना  था 
तभी  वो  मेरी   हो पाती 
जिस  दिन  धूप   मेरी   हो  जाती 
जलती तो  मेरे  ही  भीतर 
पर  मुझे  न  जला  पाती !!

कल घूमते -घूमते

कल  घूमते -घूमते  शहर  के एक  घर  से  जब  बात हुई 
तो  उसके  बंद  दरवाजे  ने   कुछ  राज यूँ  खोले -
चारपाई  को  ड्राईंग -रूम  से   हटा कर 
पीछे  बरामदे   में  रखना 
उतना   नहीं  था  दुखद  उसके  लिए 
जितना   दुखद  था   बाबूजी  का  अब उस  चारपाई  पर 
बरामदे  में  सोना !

सुविधानुसार  तर्क   भी बनाये  गये 
घरवालों  की तरफ  से 
कि 
ड्राईंग - रूम  के  हो-हल्ले  से  उन्हें    निजात मिली 
वहीँ  बरामदे  में  सटे  बाथरूम  होने  से 
उनकी दिनचर्या  में  सरलता  आयी !

फिर  उस  दरवाजे  ने 
मेरे कान  में   धीमे  से  बताया -
बेटा   बुरा  नहीं  है  इतना
वो तो  बाबूजी  ने   खुद  प्रस्ताव  रखा था 
नए  सोफे  की  जगह  बनाने  हेतु !

बाजू  वाले  दरवाजे  के   बारे में  बताया 
उसके   अन्दर  कमरे  तो  हैं 
मगर  नहीं  है  बरामदा ,
सो  उनके  बाबूजी आश्रम  में  रहतें  हैं !

बेटा  उनका भी  नहीं  है  बुरा 
कितना  ख्याल रखता  है  -
हर महीने  मिलने  जाता  है,
मिलने   वालों को   बताता  है -
घर  पे तो   कितने  अकेले  थे  बाबूजी 
वहाँ  तो  हमउम्र  की अच्छी  कंपनी  मिल गई ! 

मगर   अभी तक  यकीन  नहीं  आया  
कि  उस  बंद  दरवाजे   ने   मुझे  ये सब  बताया ...
हे  ईश्वर !  क्या  मेरे  बालों  में   आती  सफेदी  देख  ली  उसने ??

क्या मैं तुम्हारी जिन्दगी में

 क्या   मैं  तुम्हारी  जिन्दगी  में 
शामिल   हूँ  मात्र   दिनचर्या   की  तरह ?

ऱोज   ही  पूजाघर  में  
साथ  होती हो  भक्ति  के  ,
रसोई   में  साथ  होती  हो   स्वाद  के  ,
बाहों   में  साथ  होती  हो  आसक्ति  के ,
मगर   इसमें   प्रेम  कहाँ   है  ??

आओ   हम दोनों  खोजें   मिल कर  
विश्वास  के  गर्भ  से   पैदा हुआ  प्रेम ,
जिसने   अभी   ठीक से   चलना   भी   नहीं   था सीखा ,
छोड़  दी  हम  दोनों  ने  उसकी  ऊँगली !


नहीं  मालूम  उस  नवजात  को  मर्यादा  की  चौहद्दी ,
गर्म  साँसों  के  कंटीले  जंगल   में  फंसे 
हम  अपने  प्रेम  की  कराह   सुन तो  सकते   हैं ,
मगर  नहीं  खोज  पा  रहे  उसके  अस्तित्व  को !


मेरा  विश्वास  है  वो  मिलेगा ,
जरुर मिलेगा !
मगर  मुझे  अपनी  दिनचर्या  से  मुक्त  करोगी  तब ,
मुझे  अपनी अँगुलियों  औं  हाथों  में 
एक   दास्ताने  की   तरह  पहनोगी  जब !

दसों  उँगलियों  सी पूर्णत :  मेरे   भीतर  आओगी ,
यकीन  मानो 
एक   भी  कांटा  नहीं  चुभेगा ,
और  तभी  प्रेम  को  खोज   पाओगी  !!

हां मैं हूँ बहुत तन्हा

हां ! मैं हूँ बहुत तन्हा
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हां ! मैं हूँ बहुत तन्हा, 
मेरा बिस्तर तन्हा, 
उसकी हर इक सिलवट तन्हा , 
मैं -बिस्तर -सिलवट सब हैं साथ घुले मिले , 
क्यूँ मेरी तन्हाई नहीं घुल पाती है ?

मेरे घर की चारों दीवारें हैं साथ
 पूरी छत को सम्भाले ;
मगर चारों खड़ी हैं तन्हा !
बरसों से बन्द पड़ी खिड़कियाँ ;
खिड़कियों पर जंग खायी छिटकनियां , 
क्यूँ चुप पड़ी हैं तन्हा ?
क्यूँ नहीं खुल पाती हैं ?

हमारी रिश्तेदारी
 केवल अपनी अपनी तन्हाईयों से है !
हमारी शिकायत
 एक दूसरे के बीच की खाईयों से है !
शाम को चाँद आता है तन्हा ;
सुबह से पहले जाता है तन्हा !
पूरी तन्हाई टूट कर बिखर है जाती
 जब सुबह सुबह बुलबुल गाती है!

मैं कभी खुश नहीं रहा अपनी तन्हाईयों से ;
बिस्तर -सिलवट -खिड़की -छिटकनी-खाईयों से !

मैं एक भी आंसू नहीं गवांऊगा , 
मेरी तन्हाईयों के तमाशबीन
 केवल तुम रोओगे , 
जिस दिन मैं तुम्हें तन्हा कर जाऊँगा !

पूरी कायनात से टपकती रिसती
 सख्त सूखी तन्हाईयां , 
चिपक गई हैं मैल की मानिंद ;
क्यूँ नहीं धुल पाती हैं ?
जबकि मुझे भी रोज सुबह सुबह , 
गाती हुई बुलबुल भाती है !!
----------------- तनु थदानी

कहते हैं क्रांति हुई है


काश! 
---------------
कहते हैं क्रांति हुई है ,
पूरी दुनियां छोटी हो गयी है !
मगर ,
नहीं दिखती मुझे दुनियां छोटी !

मैं मान भी लेता ,
काश! दुनियां गंर मेरे और तुम्हारे बीच सिमट जाती !!

खामोशी का बतियाना तो कवियों का जुमला भर है ,
प्रिय, किसी खामोशी में , पूरे आनंद से ,
मैं बतियाता ,
मैं कुछ गाता ,
कोई सुन न पाता ,
केवल तुम सुन पाती !
और मैं मान ही लेता ,
छोटी हुई दुनियां की बात बिलकुल सही है !!

गन्दी बदबूदार नालियों के पानी से

गन्दी  बदबूदार  नालियों  के  पानी  से ,
नहा  के  निकली ,
मंगलसूत्र  ठीक  किया ,
काजल -  बिंदी - लिपिस्टिक  लगायी ,
घर  आ  कर  परिवार  ओढ़  लिया  !

हवा  के  चप्पे- चप्पे  पर  फैली  गंध  ने ,
कभी  नहीं  बख्शा  उसे ,
हवा  की  शिकायत  जायज़  थी ,
खुद  को  मैला  किया  फिर  गंध  हवा  में क्यूँ  मिलायी ?
पायल  तो  आवाज़  कर  देती  है  सो  फेंक  दिया ,
पैरों  से  चाल  जानी  जाती  है , चलन  नहीं ,
फिर  पैरों  को क्यूँ  सिकोड़ा  मोड़  लिया  ??

आप  जब  खुद  को  देते  हैं  धोखा ,
तब  आप  खुद  ही  से  खुद  को छिपाते  हैं !
उसकी  तो  कोई  मज़बूरी  ही  रही  होगी ,
जो  सब  जानता  है  फिर  भी  साथ  है  रहता ,
परिवार  रहे  जुड़ा  सो  उसने  देर  ना  लगायी ,
उस  शख्स  ने  चुपचाप  अपना  दिल  ही तोड़  लिया !!  








बस मांगी थी इक मुस्कान

बस  मांगी  थी  इक  मुस्कान ,
बेटे  ने  वो  पूरा  पार्क  ही  तोहफ़े  में  दे  दिया, 
जहाँ  सुबह -सुबह , 
समूह  बना कर  जोर -जोर  से  हँसते  लोग जमा  होते  हैं !
फिर  कभी  कुछ  नहीं माँगा  बेटे  से ,
फिर  कभी पता  तक  नहीं  चलने  दिया ,  
कि , हम  भी  कभी  रोते  हैं !!

पार्क  में  जोर-जोर  से  हँसते  लोग ,
इक  दूसरे  पर  ही  तो  हँसते  हैं  !
हम  शहरी  लोग  उम्र  के  आखरी  पड़ाव  में ,
ऐसे  ही  किसी पार्क  में ,
टूटे - फूटे  समूहों  में  स्वत : स्वत : फंसते  हैं !

कच्ची  बुनियादों  पे  खड़ी  दीवालें  ,
ता -उम्र  रोती  हैं ,  
बेशक  समझदार  लोग  बताते  हैं  ,
वो  तो  नमी  होती  है !
नम  दीवालों    पे  बड़ा सा  मुस्कुराता  फोटो  लगाते  हैं ,
कम  से   कम  खर्च  में  पूरी  दीवाल   छिपाते  हैं !
सचमुच  हम  ही  बुद्धू  थें ,
आजकल  के  बेटे  तो  समझदार  होते  हैं ,
उन्हें  सब  होता  है  पता ,
कि , हम  कब - क्यूँ - कैसे  रोते  हैं ! 

हे  ईश्वर ,
हमने  तो  क्षमा  का  भुगतान ,
अपनी  साँसों  से  कर  दिया ,
मेरे  बेटे  को  कभी  ना  रुलाना ,
बेटे   हमारे  अपने  बचपन  सहीत ,
अब  भी  हमारे  दिलों  में  बसते  हैं !!   










    

मैं प्रेम की कविता नहीं लिखुंगा कभी




मैं  प्रेम   की  कविता  नहीं  लिखुंगा  कभी ,
किसके  लिये लिखूं  ?
है  कहाँ  प्रेम  ??
हमारे  समाज  में  प्रेम  मात्र  कविता  में  बचा  रह  गया  है !

अगर  न  रोने   का  वादा  करो  तो  मैं दिखाऊंगा  तुम्हे , 
प्रेम  का क्षत - विक्षिप्त  शव  छपरा के  अस्पताल  में !
अभी  तक  मांओं  के  आंसुओ  के  निशान  ताजा  हैं ,
कभी  ना  रोने  वाला  पिता  भी है  बिलखता - रोता !
जारी  है  मौत  की  सरसराहट ,
एक   बिस्तर  से  दूसरे  बिस्तर ,
छटपटाती  मासूम  जिंदगियों  के  अगल - बगल !
क्या  प्रेम  है  बचा  हमारे  समाज  में ?
अगर  होता  तो  ये  दृश्य  ना  होता !!

नेताओं  की  खिली  बाँछों  में ,
राजनीति  से  प्रेम  नजर  आता  है !
उस  बनिये  का  पैसे  से  प्रेम  समझ  आता  है !
दलाल  दर  दलाल  कमीशन - प्रेम  मंडराता  है !
सभी  व्यस्त  हैं  अपने  प्रेम की  परिभाषा   को चुस्त  रखने  में !
ये  भी  कोई  शोध  का  विषय  है ,
कि गाँव  का  बच्चा  मिड- डे  मील क्यों  खाता है ??  

प्रेम -रस  में  डूबे  शब्दों  के  लूटेरे ,
अध्यात्म  की  चाश्नी  बेचने  वाले  हजारो  डेरे ,
कितनी  सहजता  से आँखे  मूंद  निकल  गयें  सुबह -सुबह ,
उन्हें  तो  प्राणायाम  करना  था  ना !!

मैं  प्रेम  के  जज्बातों  के  साथ  नहीं  दिखुंगा  कभी ,
किसके  लिये  दिखुं ?
है  कहाँ  प्रेम  ??


तुम  राजनीति  करते  लोग ,प्रवचन  करते  लोग ,व्यापार  करते  लोग 
सब  हो  हत्यारे  प्रेम  के !!
मैं  नहीं  कह  रहा  ये  सब ,
गौर  से  सुनना  आवाज  अभी  तक  गूंज  रही  है ,
प्रेम  से  वंचित  वो  गाँव  का  बच्चा 
अस्पताल  में  मरने  से  पहले  कह  गया  है !!
  

  

हम प्यार करना क्यों नहीं सीख पाते ?




हम  प्यार  करना  क्यों  नहीं  सीख  पाते ?
गवां    देते  हैं  पूरी  उम्र ,
शादी  करते  हैं ,
बच्चे  होते  हैं ,
और  बूढ़े  हो  जाते  हैं ,
फिर  अफ़सोस  करते  हैं ,
कि ,  सब  किया जीवन  में , मगर  प्यार  क्यों  नहीं किया ?  

पहले  घर  लेते  हैं ,
उसमे  परदे - फर्नीचर  लगाते  हैं,  
फिर  रिश्तों के  हिसाब से बने  कमरों  में ,
खुद   को  कैद  कर  पूरी  खामोशी  से  चिल्लाते  हैं ,
कि ,  हमने  मकान  क्यूँ  लिया , घर  क्यूँ  नहीं  लिया  ?

करोड़ो  कीड़ों - मकोड़ों  के  बीच ,
अपरिचित सी  शक्ल  लिये ,
जीवन  गुजारते  हम , हमारे  दोस्त  , हमारे  अपने ,
मर  जाते  हैं  अंततः  हम  सब ,
मगर  समझ  नहीं  पाते कि , 
हम  तो  आखिर  इंसान  हैं  ना ,
फिर  जीवन  उन  कीड़ों  से  हट  कर  क्यूँ  नहीं  जीया  ?

चलो  आज  से  बजाय  खिड़कियों  पे  परदे   लगाने  के ,
खिड़कियों  के  बाहर की  दुनियाँ  को  साफ़  करते  हैं !
दूसरों  के  खिलाफ़  नहीं  ,
आज  से  खुद  ही  के  ख़िलाफ़  ज़ेहाद  करते  हैं !
जीवन  निश्चित  है  फिर  मौत  भी  निश्चित , 
चलो , जी  चुके  गर  नफरत  से , तो  प्रेम  से  मरते  हैं !
किसी  ने  चुटिया  दी  लंबी ,
किसी  ने  टोपी ,
तो  किसी  ने पगड़ी !
याद  रखो , जरुर  बच्चे  ही  इक  दिन  पूछेगें ,
कि , इंसानों  का  वेश  क्यूँ  नहीं  दिया  ?? 







        






रूप बदलती नायिका ने

रूप  बदलती  नायिका  ने, 
पूरी  कहानी  का  ही  रूप बदल डाला ,
मगर उसी  कहानी  में  अछूता  बचा  मैं !
मैं  खुद  अपनी  प्रेम- कथा  के  निर्वासन  का , 
बन  गया  इकलौता  गवाह  इस  पार !

नहीं   मानी  जायेगी  मेरी  गवाही ,
सभी  मेरी  प्रेम-कथा  को उपस्थित  मान  रहें  हैं !
कुछ  भी  तो  नहीं  बदलता  है ,
जब  साफ़- सुथरे  शरीर  की  आत्मा  मैली  हो  जाती  है ,
मुस्कानों  से  मासूमियत  खो  जाती  है !
मैं  अपनी  प्रेम- कथा  से  खुद  को  अलग  कर  रहा  हूँ ,
मगर  अलग  नहीं  कर  पाऊँगा  प्रेम  को !

विश्वासों  में   घातों  का  प्रचलन  क्यों  मान्य  है ?
विश्वास  हो  तो  हर  इक  मान्यता  रद्द   हो  जाती  है !

हे  ईश्वर !
तुझमे  बसा - रचा  मैं  ,
तुम  तक  लौट  आने  को  हूँ  तैयार  !
खारिज़  करता  हूँ  अपने  आवरण  को ,
कायर  नहीं  हूँ  मैं ,
देखो ! कैसे  कमल  बन  गया  मैं , तुम  पर  ही  अर्पित  होने  को , 
मगर  कीचड़  से  तो  नहीं  कर  सकता  प्यार  !!
   

जब सम्भोग हमारे प्रेम का परिचायक बन जाता है


जब  सम्भोग  हमारे  प्रेम  का  परिचायक बन जाता है, 
हम  वही  रहते  हैं ,
प्रेम  भी वही  रहता  है ,
मगर  दिल   से  इक  समुन्दर  बहता  है ,
जिसमे  नहा  कर  हमारा   वजूद   खारेपन  से   सन  जाता  है !

परियाँ   अलग   कहीं  नहीं  रहतीं ,
वो  हमारे  जेहन  में  रहतीं  हैं !
हमारी  सोच  में  मसली  जाती परियाँ ,
कराहती  हैं , छटपटाती  हैं ,
मत  काटो  हमारे  पंख  , बस  यही  कहतीं  हैं  !
आखिर  हमारे  ही  हाथों  से  किया  गया ,
हमारी   आँखों  को  नज़र  क्यूँ  नहीं  आता  है  ?

शरीर  लिपटता  है  शरीर  से ,
शरीर  के  साथ  शरीर  सोता  है ,
जब  हम  बिस्तर  पे  होते  हैं ,
तब  प्रेम  ज़मीन  पे  होता  है  !
अंततः  कहानी  ये  होती  है ,  कि ,
ना  हम  हो  पाते  हैं   सम ,
ना  दिल  कुछ  भी  भोग  पाता  है !

हमें  लौटाने  होंगे  परियों  के  पंख ,
तभी  वो  जेहन  से  निकल  हमारे  सामने  आयेंगी !
हमने  ही  प्रेम  को   सम्भोग  का  मोहताज   बनाया  है ,
सच  ये  है  की  , जीवन  की  तमाम  बारीकियों  को  मात  देता  प्रेम ,
हमारी  -  तुम्हारी  आँखों  से  ही  छन  जाता  है !!







     

जिसे हम बचपन से जानते हैं

जिसे  हम  बचपन   से  जानते  हैं ,
जो  हमारे   साथ  बड़ा  होता  है ,
यकानक  कुछ  ज्यादा  बड़ा  होने  का  प्रयत्न  करता  दीखता  है ,
मतलब  को  बांधता  है ,
और  बातों  में  फेंकता  है  !
जो  बचपन  से  पहचानता  है ,
तब  यकानक  अपरिचित  हो  जाता   है ,
कबाड़  सी  जिम्मेदारियों  में  जब  हमें  फंसा   देखता  है !

ऐसा  क्यूँ  होता  है ,
कि , हम  अचानक  ही  बच्चे  से  बड़े  हो  जाते  हैं !
सम्बन्ध  बैठ  जाते  हैं ,
हमारे  आजू - बाजू   पैसे  खड़े  हो  जाते  हैं !

सर्वप्रथम  घरों  में  कमरे  बाँटते   हैं ,
फिर  रसोई ,
अंततः  घर  बाँट  खुश  हैं  होते ,
जब  गाँव  में  खेतों  का  करते  हैं  हिस्सा ,
माँ  - बाबूजी   गठरियों  की  तरह  चुपचाप  रहते  हैं ,
लगता  ही  नहीं  की  वे  हैं  रोते ,
आँखों  के  गड्ढों  को  हाथों  से  पाटते  हैं !
हम , जो  अपनी  आँखों   का  पानी  तक  बेच  देते  हैं ,
सूखता  है  गला ,  तब  ओस  चाटते  हैं !

ऐसा  यूँ  होता  है ,
कि  परिणामों  के  मेले  में 
इकठ्ठे  घूमते  हैं ,
कपडे  खरीदने  के  लिये  शर्म  बेचते  हैं !
जीवन  का   व्याकरण  तो  यूँ  हैं  रटते ,   जैसे  आदमी  नहीं  तोते  हैं ,
हाथों  में  हाथ  होने  के  बावजूद  हम , अचानक  गुम  होते  हैं  !

रुको !
देखो  सूजन  आ  गयी  शक्ल  पे ,
बायें  हाथ  ने  अभी   कल ही तो  मारा  था ,
आज  दायाँ  हाथ  उसे  सेकता  है !
पैसा  तो  हमने  पैदा  किया  था ,
आज  पैसों  ने  हमें  ही  खरीद  लिया !

हम  बिक  चुके  हैं  फिर  भी  बचने  की  शुरुवात  करते  हैं ,
चलो  , अपने- अपने  अस्तित्व  से ,
सर्वप्रथम  अपना- अपना   मैं  काटते  हैं  !




















आओ , मैंने पकड़ लिया प्रेम का एक सिरा



आओ , मैंने  पकड़   लिया   प्रेम   का एक  सिरा,
दूसरा  तुम  पकड़ो,
चलो , यादों  का  झूला  बनाया  है ,
तुम  झूलो  मेरे  साथ , मुझे  जोर  से   जकड़ो !

सातों  फेरों  में  था  एक  अनुबंध ,
एक  हिस्सेदारी  थी ,
मेरे  संपूर्ण  के  आधे  की !
लो , तुम  मेरा  आधा  नहीं  समूचा  हिस्सा ,
नहीं  चाहिये  एक  कण   भी  मुझे  मेरे हिस्से  का !
मेरे  लिये  केवल  तुम  ही  काफी  हो ,
केवल   और  केवल  तुम मेरे  हिस्से  में  आ  जाना !

सुनो , जलेबियाँ   सीधी    नहीं  होती ,
मगर  मीठी   तो  होती  हैं !
मैं  तो  मेहंदी  के  मानिंद  हूँ ,
हरे  से  लाल  होता  हूँ ,
आओ  ,खुशियाँ  फंसा  लो  , मैं  जाल  होता  हूँ !
वो  मेरा  सपना था  जो  टूट गया ,
पगली ,  तू  क्यों  रोती  है  ?

मैंने  बांहें  फैला  दी  हैं ,
जब  चाहो  आ  जाना ,
समा  जाना  मेरे  सीने  में , देना  हाथों  में  हाथ !
तुम्हारे  जिस्म  पे  शर्तों  के  आभूषण  चुभते  हैं ,
छिल  जायेगा  मेरा  सीना 
मुझे  नहीं  मंजूर  एक भी  खरोंच  मेरे  सीने   पर ,
क्यों  की  वहां  तुम  रहती  हो , मेरी  यादों  के  साथ  !!  




मैंने तो जीना शुरू ही नहीं किया अब तक

मैंने   तो  जीना  शुरू   ही   नहीं  किया  अब तक ,
क्यों  कि ,
जीने   के  लिये  तो   चाहिये   एक  अदद  जीवन  !

चरित्र   से  कुपोषित  चेहरों  पे ,
जीवन   की  नकाब  ओढ़े  जिंदगियों  ने 
सहमा  दिया  है !

नहीं  चाहिये  जीवन   ऐसे  माहौल  में ,
पूरा   का पूरा  खिलवाड़   है  ये जीवन  ,
बिलकुल  सही   बता रहा  हूँ  मैं !

साँसों   को   आपत्ति  नहीं    होती ,  तो,
मैं   हरगिज  जान  नहीं    पाता ,
कि  ये  जीवन  सारा  का  सारा ,
खिलवाड़  है    साँसों   के  साथ !

अच्छा   हुआ ,
मैंने   जीना   शुरू   ही   नहीं  किया  अब तक !!

मैं नफरत करता था तुमसे

मैं   नफरत  करता  था  तुमसे, 
मगर   गणित  के  किसी   भी  सूत्र    से ,साबित   नहीं  कर  पाया !
वफ़ा  के  घटने  के  बावजूद ,
सिद्ध  नहीं  कर  पाया  नफरत !

मगर 
बारहवीं  में  पढ़े  तर्कशास्त्र  ने 
आज  सिद्ध  करवाया  मुझसे 
कि  मैं  तुमसे  प्यार  करता  हूँ  !

हाँ !  ठीक   सुना  तुमने ,
मैं  तुमसे  प्यार  करता  हूँ ....
क्यों  कि  तुम  मेरी    माँ  से  प्यार  करती  हो,  
और  मैं   अपनी  माँ   से  प्यार  करता  हूँ , बहुत  प्यार  करता  हूँ  !
इसीलिये  स्वत :  सिद्ध  है 
कि  मैं  तुमसे  प्यार  करता  हूँ !!

तुम हमेशा मेरी नींद में प्रस्तावित हो

तुम   हमेशा  मेरी  नींद  में  प्रस्तावित  हो !
खुली  आँखों  में   तो  होते  हैं  हम ,
जिस्म   के पहरों  में ,
क्या  तुम   समझ   पा  रही  हो 
जिस्म   से परे  इश्क  को  ?
अगर  हाँ,  तो 
मैं  सिखाऊंगा  तुम्हे ,
दुःख  रहित  जीवन  जीने  का सलीका ,
जहां  हम  पूर्णत  वजूदहीन  हो  कर   करते  हैं  प्रेम ,
जहां   आनंद  के  लिये  वर्जित  होगा  जीना  ,
हाँ ! आनंद  से  जीने  के  लिये  आमंत्रित  होंगे  सब !

कब  आओगी  तुम  ?
चलो  छोड़ो ,
तुमने  तो  इर्द - गिर्द  बसाया  है  परिवार ,
जहां  तुम  सबो  के साथ ,
सब तुम्हारे  साथ ,
गुंथे  हुये  हैं अपनी - अपनी  जरूरतों  के  लिये !

आनंद  से  जीने  के  लिये  कोशिश  करती  हो ,
मगर  जी  नहीं  पाती  हो  ना ?
क्यों  तुमने  सात  फेरे  ले  कर ,
मुझे  इस्तेमाल  किया केवल  एक  रिश्ते  के  रूप  में ,
फिर  मुझे  दूरियों  के साथ  किया  अस्वीकार !

विश्वास  करो  मैं  दूर   जरुर  हूँ ,
मगर  मेरी  बाहों  के  घेरे  में ,
केवल  तुम  और  केवल  तुम  ही  पारित  हो !
आना  जरुर   मेरे सपनो  में  प्रिय ,
क्यों  कि  तुम  हमेशा  मेरी  नींद  में  प्रस्तावित   हो !








मैं शायद नहीं रोता

मैं  शायद   नहीं रोता ,
अगर  किसी   ने  मेरा   हाल ना  पूछा  होता !

कुछ  टूटे- फूटे  सपनों   को  तकिया  बना  जागता  हूँ ,
किसी  की  नर्म  अँगुलियां ,
मेरे  बालों  को  सहलाती , तो  मैं  भी  सोता !

मेरी   नन्ही सी  जिन्दगी ,
मेरे  सीने  से  लिपट  फुसफुसाती  है ,
कि  , उसे  यहाँ  डर   लग  रहा है ,
जरुर  मेरा   घर  एक  जंगल  है ,
वरना  मैं  खुद   के  ही  घर  में   क्यूँ  यूँ  खोता ?

किसी  के  आगमन  पर ,
कोई  खामोशी   का  नगाड़ा   बजाता  है  भला ?    
भाव  तो  नग्न  कर  दिये  थे  अपनों  ने ,
किसी  ने  शब्दों  को   ही  कपडा  बनाया  होता  !

नहीं  समझेगा  कोई ,
कि  मैं  बातें  किससे  कर  रहा  हूँ ,
तुम  तो  मेरे अन्दर  हो ,
काश ! जमीन   मिल  जाती  मेरी  बिटिया ,
जहां  मैं  तुझे  बोता !!     





  

अदभुत शैली के ठग हैं हम

अदभुत  शैली  के  ठग  हैं  हम ,
जो  सर्वप्रथम  स्वयं  को  ठगते  हैं !

योग्यता  के  बाजार   में  
खुद   को  बेच  कर   खुश  होना ,
गैर   जरुरी  मसौदों  को  
पूरे जीवन  सिर  पे   ढोना, 
किसी  जंगली  जानवर  के  लगभग  हैं  हम !
हम  जानते  हैं  कि  ठग   हैं  हम !!

अपने  बच्चों  के  समक्ष ,
चरित्रवान   होने  का  ढोंग  करते - करते
हम   ना  कभी  ऊबते   हैं  ,
ना  थकते   हैं ,
यूँ  ही  पीढ़ियों  से  
आदतन  ही  इक  दूसरे  को  ठगते  हैं !
जीवन  की  अंगूठी  में  ज्यों  नकली सा   नग  हैं  हम ! 
हम  खुश  हैं  कि  ठग  हैं  हम !!

रिश्तों   में  भी   लाभ- हानि   का  गणित  बैठाते  हैं ,
बूढ़े   होते माँ  - बाप की  उपयोगिता  पर  दिमाग   लगाते है ,
दिमाग  की  दिल  से  सांठ - गांठ को रोकते   हर  पग हैं  हम !
क्यों  कि  मूलतः  ठग  हैं  हम !!

कई दिनों से देख रहा हूँ

कई   दिनों  से   देख  रहा  हूँ 
तुम  खोज    रही  हो  मुझे 
अपनी  पर्स  में !
टटोल   रही  हो  मुझे 
ए  टी  एम   कार्ड   में !
एक   बार   आलिंगन  में झांक   लिया  होता ,
शायद   मुझे  महसूस   कर  पाती !

ढ़ेर   सारी  शिकायतों  को  उढेल  कर   मुझमे 
एक  शिकायत   शेष   बता रही  हो  कि 
मैं  क्यों   बन  गया डस्टबीन  ?

सच   कहूँ  
मैं  तो  बनना   चाहता   था  गमला 
काश  !  एक   पौधा   फूलों  का  लगा  कर  देखा    होता मुझमे  !

मेरी   कल्पना  में 
तुम   होती  हो  एक   बहुत  बड़ा  समतल सा  खेत 
मैं   हल  सा  तुम  पर  चल  रहा   होता  हूँ -
सुन्दर- सुन्दर  फूलों  के  बगीचे  की   आशा में  !

यूँ    मत  हँसो  मुझ  पर 
मैं  नहीं  हूँ   पागल 
जिस  दिन  हो  जाउंगा   पागल 
 उस  दिन  रो  भी  नहीं  सकोगी तुम  !!




मेरी आत्महत्या में




मेरी   आत्महत्या  में 
आमंत्रित   हो  तुम  
क्यों  कि 
मेरी  आत्महत्या  तो   विस्तार  है   तुमसे  नफरत  का !
तुम   आना   जरुर ,
तभी  तो  एक  बार 
मेरे  शरीर   से  मुझे  अलग   होते  महसूस  करोगी !

क्या    फर्क  पड़ेगा  तुम्हे 
मुझे  नहीं  मालूम 
पर   मैं  जरुर  मुक्त  हो  जाउंगा  नफरत   की कड़ियों  से !

क्यों    हम   जीते   हैं   प्रेम  के  लिये  ?
प्रेम   से  क्यों  नहीं  जी  पाते  ??
प्रेम  के  लिये   जीने  में  शामिल    होती है  जिद 
मगर  प्रेम  से  जीने  में   चाहिये  मात्र  समर्पण !

मैं   फिर  कभी नहीं  मिलुंगा 
ना   शरीर  से ,   ना   याद से   ,
छूट  जायेगी  तुम्हारे  इर्द- गिर्द 
मेरी  तड़प , मेरी टीस  ,एक ना उम्मीदगी  ,
साथ  में  अकेलेपन   का गहरा  समुन्दर  !

तुम  आना  जरुर  
मेरी   आत्महत्या  तो  एक  जश्न   होगी  
मेरी   आत्महत्या     में  मैं   तो  जीवित   रहूंगा 
मेरे  भीतर  केवल तुम  मरोगी  !


शीर्षक का एक अनुबंध होता है

शीर्षक का एक अनुबंध होता है
 कथानक के साथ ;
शीर्षक चुपके से बता जाता है -
कथानक का सारांश !

मैं तुम्हें हमारी प्रेम कथा का शीर्षक बनाता हूँ
 खुद सरल सारांश के लिये
 एक कथानक बन जाता हूँ !

मेरे कथानक के आंगन में
 बाबू जी हैं ;अम्मा है ;और बच्चे हैं !
मेरे कथानक की छत पे
 कड़ी धूप में सूखते
 हमारे प्रेम के किस्से हैं ;
वो हमारे परिवार के ही हिस्से हैं
 बेशक उबर -खाबड़ हैं
 फिर भी अच्छे हैं !

तुम रसोई घर में खाना बनाती हो ;
कपड़े धोती हो ; घर सजाती हो ;
परदे लगाती हो फिर मेरे पास आती हो !
मैं घटनाओं सा पसर जाता हूँ
 महज हवा ही तो हूँ मैं
 मगर तुम तो हो मेरी सांस !

जितना आसान है होता बनना कथानक
 उतना कठिन होता है चुनना एक शीर्षक !
बेहद सुखद होता है
 किसी शीर्षक का स्वत: चुपके से
 बनना कथानक का सारांश  !

हाशिये तक खाली नहीं रहें कथानक के पन्नों के ;
बाबू जी और अम्मा ने लिख दिया था वहाँ
 कि कथानक और शीर्षक दोनों ही अच्छे हैं !

ऐ कविता

ऐ कविता ,
जिस दिन मैं रोया था पहली बार ,
बस तू ही थी जो रोयी थी मेरे साथ !
कहाँ से थी आयी ,नहीं मालूम ,
तू मिली तो मैं व्यक्त हुआ
तू मिली तो गौरेया के मायने समझ मेंं आये ,
मैं  सूख गया था आँसुओं में डूब कर ,
तू मिली तो तुकबंदियों ने अपने फटे पुराने कपड़े भी दिये,
ढ़क दिया नंगापन मेरा ,
तू मिली तो मैं खुद की घड़ी का वक्त हुआ !
आज मैं कविता दिवस पर  तुम्हें देता हूँ बधाई ,
मैं किस्मत वाला हूँ  जो तू मेरे हिस्से में आयी !
---------------------  तनु थदानी

हम अपने व्यक्तिगत होते परिचय को




हम  अपने   व्यक्तिगत  होते  परिचय   को 
मान  बैठते  है  उपलब्धि  !

बच्चे    के  जन्म  के   साथ  मिठाइयाँ   बांटने 
और   किसी  परिचित  की  मौत  पर   रो लेने  की  प्रक्रिया  से 
हम   खुद को   मानव  साबित   कर  बैठते  हैं  !
क्यों    नहीं  रोती  आँखे   अपरिचित  की  मौत  पर ?
क्यों   हमारे    खुश  होने  के  मापदंड   भी  पहले से  तय  होते  है  ??

ता  उम्र  बिखराते  चलते   हैं  सजीव- निर्जीव  संबंध  एवम  साधन 
नहीं  समेट    पाते  अंतत :  !  

चलो   प्रिय  !
दिमाग  की  दीवारों  को  खुरचें 
पूरा   मवाद   निकलने    तक  खुरचें 
मुझे   विश्वास   है 
पूरा  मवाद  निकलने  पर   ही हम  सामान्य  हो  पायेंगे 
और  सामान्य     होना  ही तो   होगी   हमारी  उपलब्धि  !  

तय कुछ भी नहीं होता है पहले से

तय कुछ भी नहीं होता है पहले से ,
ना समर्थन में कुछ,
ना ही विरोध में !

जब खाना नहीं मिलता भूखे को ,
वो तय करता है खाना छीनना !
भूखे का खाना छीनना कतई समर्थन नहीं होता आगजनी का ,
भूखा सिर्फ भूखा है ,
यही तय है पहले से ,
चाहे वो चुपचाप है या है वो क्रोध में !

हम हिन्दू मुसलमान होने से पहले ,
नहीं तय कर पाते ,
कि हम पहले भूखे नंगे हैं !
क्यूँ नहीं समर्थन दे पाते हैं पहले भूख को ?
क्यूँ गुजार देते हैं फटेहाल जीवन ,
अपने अपने धर्मों के शोध में ??

आंखों से सपने बीनना ,
लिखना-पढ़ना फिर बेरोजगार हो जाना ,
आना भईया कभी हमारे उत्तर प्रदेश आना ,
केवल यहाँ पहले से तय होता है सब कुछ ,
तुष्टीकरण से ले कर फसाद व विवाद तक ,
मुजफ्फरनगर से ले कर फैजाबाद तक ,
मरना तो आम आदमी को ही है भईया !
लाशों पे राजनीति करने वाले ,
सदा दीखेंगे ,
सफेद झक्क कुरतों के भीतर आनंद व विनोद में !!

तुम आस्था को तर्कों से बाँधते हो ना

तुम आस्था को तर्कों से बाँधते हो ना ?
मगर पहले तय तो कर लो ,
लोग तर्कों में क्या क्या सानते हैं !

तर्क मेरे बच्चे की तरह होते हैं,
मगर आस्था तो माँ  की मानिंद लगती है !
बच्चे हो चुके हैं प्रगतिशील ,
दो रंगों को मिला तीसरा रंग बनाते हैं ,
भाषाओं पर कब्जा करने वालों को ,
समझते हैं पढ़ा लिखा ,
संकेतो को भी नई भाषा बताते हैं !
माँ ने कभी भाषा नहीं बदली ,
क्या माँ भी कभी ठगती है ?

डूबता हुआ सूरज ,
या उगता हुआ सूरज ,
बच्चों ने अमान्य कर दिया ,
बताया , पृथ्वी ही घूमती है !

माँ ने डूबते सूरज को पूजा , फिर उगते सूरज को ,
पूरे परिवार की सलामती के लिये रखा उपवास!
क्यों कि उसे सूरज से मतलब है ,
जिसकी रौशनी में वो बच्चों को देखती है,
उन्हें प्यार करती है , उन्हें चूमती है !

अब बच्चों को तय करना है कि ,
वो माँ को कितना मानते हैं ??







मेरी खामोशी है मेला कुंभ का




मेरी खामोशी है मेला कुंभ का ,
जहां बहुत कुछ छूट जाता है,खो जाता है !



मेरी खामोशी है धरातल चाँद का ,
जहां नहीं है गुरुत्वाकर्षण !
जब कभी उतरता हूँ
 अपनी खामोशी में,
हो जाता हूँ वजनहीन ,
गोया भार कहीं सो जाता है !



मेरी खामोशी है फुटपाथ,
पूरी चहलक़दमी,
नहीं ठहरता है कोई,
न ही कोई किसी का हो पाता है !



करोगी दोस्ती मेरी खामोशी से ?
शर्त है ; ढेरों बातें करनी होंगी !
मैं कभी चुप नहीं रहता अपनी खामोशी में ;
मगर देखो ना ;
हर वो हो जाता है निरंतर चुप ;
जो मेरी खामोशी में उतर दाखिल हो जाता है !!

बूंद बूंद कथानकों में

बूंद बूंद कथानकों में
 फंसती हैं जीवित कथाऐं !
जब मात्र कमाने के लिए पढ़ते हैं बच्चे,
पढ़ लिख कर कमाते हैं सिर्फ पैसे,
घुटने टेकती है उम्र तब पैसों के आगे,
अनवरत बहते जीवन पर ,
तैरती रहती हैं व्यथायें !


कभी आना मिलना अपने सूखे से दिल से,
कभी बतियाना अपने ख्वाबों से ,
थोड़ी सी खुशियाँ भी कमाना ,
कभी माँ के पास भी आना ,
इससे पहले कि माँ कहीं गुम हो जाये ,
इससे पहले कि कोई तुमसे सहानुभूति जताये !


ये कोई कविता नहीं है
 नहीं है कोई कथा ,
विवशता लिखी है परदेशी की ,
सूत्रधार अचंभित है,क्या छोड़े ?क्या बताये??
----------------- तनु थदानी

हमारी तमीज को टटोलते वो लोग

हमारी तमीज को टटोलते वो लोग ,
रात का इंतजार बस इसलिए करते हैं ,
कि नंगापन उनका छिप जाये !

भेड़ियों ने नेलपालिश खरीदी ,
गधो ने पायजामे ,
हम दोनों घटनाओं पर  शोध  करते रहें ,
और पूरा घर भर गया बंदरो से ,
चकित हुँ कि अब ये कहाँ से आये ?

खटिया आज भी बाहर नहीं है चलन से ,
बस सोफे वालों ने ,
खड़ी कर दी है हमारी खटिया !
गरीब तो महज मुहावरे से चूक जाते हैं ,
खड़ी तो खटिया ही होतीं हैं ना ,
सोफे तो महज जाते हैं सरकाये !

बिक जाने दिये हमने सपने अपने ,
खुद ही बेचे तो मलाल कैसा ?
उन्हें तो चाहिए था पैसा ,
अनजाने ही अपनी आबरु बेच आये !
हम तो गिनने में रहें व्यस्त ,
कि हमने कितने कमाये !

उन्हें लगता ही नहीं कि  वो बे-ढंगे हैं ,
उन्हें कतई नहीं शर्म की वो  नंगे हैं ,
वो तो आदतों की तरह हममें बैठे हैं घुलमिल ,
फिर बताओ ,
क्यूँ हम काले चश्मे लगायें ??
----------------------- तनु थदानी

मेरे आंसुओं का खुशबू से तर हो जाना


मेरे आंसुओं का खुशबू से तर हो जाना ;
नि:शब्दता को भींचना गले लगाना ;
जाहिर है तुमने कुंडी खटखटाई है ;
तुम्हारे साथ मेरी मुस्कान वापस आयी है !


नाहक पढ़ीं किताबें
कर डाले कागज़ काले ;
सीख न पाये दिल की भाषा पढ़ पाना  !
बहुत खोजा तेरे होने का मतलब ,
बीते कल को ढ़ोने का मतलब ;
मतलब का एक शहर समूचा ,
हाथ पकड़ना ; गुम हो जाना ;
फिर से तेरा लौट के आना ;
चुपचाप पड़े बिस्तर का गाना ;
जाहिर है हर सिलवट मुस्कायी है ;
सचमुच मेरी मुस्कान वापस आयी है !


देखो सागर का उछलना - मचलना ;
समझो उसका आनंदित हो जाना ;
जाहिर है उसमें नदी समायी है ;
ये मैं नहीं लिख रहा कविता
ये तो मेरी मुस्कान वापस आयी है !!
------------------- तनु थदानी

हे ईश्वर !तुम्हारे द्वारा दिया गया आँखों का पानी




हे ईश्वर !

तुम्हारे  द्वारा  दिया गया   आँखों   का  पानी ,
कभी  नहीं  बहाया  मैंने  आंसू   बना कर ,
सुरक्षित  रखा इक  शर्म   के लिए  मात्र  !

हे  ईश्वर !
मैं   सच  कहता हूँ 
हर   घर से  विसर्जित  होती  नालियों  में 
मैंने  वो  ही पानी   देखा 
अन्दर हर  घर  के  उस  शर्म  को  बेशर्म   होते देखा !

काश !
मैं  तुम्हारे  लिए  खुद  को  सुरक्षित  रख  पाता !
जैसा    तुमने   भेजा  था  निर्मल  और  स्वच्छ ,
वैसा  तुम  तक लौट  पाता  ....................

हाँ !
मैं   केवल  तुम्हारा  आलिंगन  चाहता  हूँ ,
मगर   अभी  नहीं !
मुझे  अपने  ऊपर  लगाए   तमाम  कीचड़   साफ़  करने की   क्षमता  दो  ईश्वर ,
जिस -जिस  ने  भी मुझे  कीचड़  लगाया ,
उनके   हाथ भी  साफ़   करना ईश्वर ,
ताकि 
जब भी  वो  तुमसे  क्षमा  मांगने हेतु  हाथ जोड़े ,
तो कम से कम हाथ  साफ़  व  स्वच्छ  हो  उनकें  !

मैं  नहीं  जानता  
हे ईश्वर तुम्हारे   निराकार में   समाहित  आकार को ,
अगर जानता 
तो  उस  आकार  में   तुम्हारी गोद  ख़ोज  लेता ,
जहां  मैं दुबक  कर -  सिमट कर बैठता ,
और  तुम्हारे हाथों का स्पर्श  सर पे महसूस  करता !!

तुम्हारे  बारे  में  लिखे  पुराण  और  कुरआन ,
दोनों  को लड़ते  रक्त- रंजित  होते  देखा ,
क्या ऐसा  संसार  मंजूर था तुम्हे ?
शायद नहीं ........
तभी तो  सर्वज्ञ  मानने  के  बावजूद  ,
ये भी   जानते हैं ,
कि  तुम हो  ही  नहीं   इस संसार  में !
अगर  होते  तो ,
श्रृन्गारित   होती   हमारी आत्माएं   प्रेम से !!

हे  ईश्वर !
मेरा आमन्त्रण  है  तुम्हे -    
आओ  अपनी  बनाई  इस  दुनिया  में !
मगर   किसी  रूप  में  न  आना ,
ना ही  शब्दों  और  किताबों  में  आना ,
आना  तो  हमारी  आँखों  में  पानी  बन  कर  आना ,
जो  संभाल रखे  तुम्हे ,उसी का  हो  के रह जाना  !! 
----------------------------- तनु थदानी

हे ईश्वर !मझे नहीं याद मैं अंतिम बार कब था रोया

हे  ईश्वर !
मझे  नहीं  याद  मैं  अंतिम   बार   कब  था   रोया  ,
जन्म  के  समय ही  रोया  था  शायद 
क्यों  कि 
उस  वक्त   किसी ने   लगाया  होगा  मुझे  गले !

आज  मैं  पुन : चाहता  हूँ  रोना 
मेरे पास नहीं   है कोई 
जो लगाये   गले 
बैठे  मेरे  पास 
मेरे  बालों  को  सहलाए 
पूरी  गृहस्थी  है 
मगर  जीवन  की  हँसी   मुझ पर  हँसती  है !

हे ईश्वर !
क्या  मैं  बंधक  हूँ  खुद   के  शरीर  का ?
क्यूँ  न  लिपटता  मुझ से  कोई ??
दिल है  कि ,  है  इक  सन्नाटा ?
क्यूँ    ना  मेरी  आँखे  रोयी ??

हे  ईश्वर !
नहीं   आ  रहा याद  मैं  अंतिम  बार  कब  था  सोया ?
बस  इन्तजार  है   इक  जोड़ी  बाहों   का 
मिल   जायेगी तो   लिपट  के सो  लुंगा 
सोने  से  पहले  जी  भर के  रो  लुंगा  !
जब  आऊँगा  पास    तुम्हारे 
तुम  मेरे  बालों  को  सहलाना 
नहीं   भेजना  इस  हृदयहीन  दुनियाँ  में  वापस !
चाहता   हूँ  खुद   के   आकार को  खोना !    
जीवन  की  जटिलताओं  में 
इक   कुटिल हँसी  तो मिल  भी   जाती है 
नहीं   मिलता  है  अंततः  निश्चल  रोना !!
----------------- तनु थदानी

Monday, October 6, 2025

जुबां से दिल और दिमाग की दूरी

जुबां  से  दिल  और  दिमाग  की  दूरी  तो ,
होती  है  बराबर ,
लेकिन  जुबां  पर  क्यूँ  दिमाग  ही  सवार  होता  है ?
अगर  होता  जुबां  में  दिल ,
या  होती  दिल  में  जुबां , 
सच  कहता  हूँ , 
हम  भूल  जाते ,  कि ,
ग़लतफ़हमी  का  मतलब  क्या  होता  है !

जीना  तो  किसी  की  आँखों  में  जीना ,
पीना  तो  किसी  की  आँखों  से पीना ,
अंधकार  तो  सब  निगल  जाता  है , 
क्या  सूरज  ने  कभी  कुछ  छीना ?
सूरज  तो  सबको  बराबर  धूप  बाँटता  है , 
मिलेगी  तुझे  भी  तेरे  हिस्से  की  धूप , 
पगले  तू  क्यों  रोता  है ??

जिन - जिन  को  चाहिये  प्यार  के  बदले  प्यार 
सब  वो  पश्चिम  जायें, 
जिन्हें  बदले  प्यार  के  कुछ  ना  चाहिये ,
मेरे  पीछे  पूरब  आयें !
रास्ता  दूर  है  मगर  मंजिल  मिलेगी , 
आशा  की  इक  किरण  भी  इधर  से  ही  खिलेगी ,
क्यों  कि  ये  निश्चित  है  कि ,
सूरज  का  उदय  पूरब  से  ही  हर  बार होता  है !

अगर  हम  जुबां  पे  राज  करें ,
तो  हम  जुबां  से  राज  करेंगे ! 
अगर  हाथ  ना  मिलायें ,
हम  केवल  दिल  मिलायें , 
तो  शातिर  दुखों  का  पर्दाफ़ाश  करेंगे !
अपनी  गर्दन  पे  केवल  अपना  सिर  रखो  ना , 
क्यूँ   दूसरों  के  सिर  को  बेकार  ढ़ोता  है  ??

प्रेम  को  परिभाषित  करने  में , 
केवल  उम्र  की  लकड़ियाँ  न  तोड़ो ,
केवल  और  केवल  प्रेम  करो , 
मगर  अपनी  भावुकता  तो  छोड़ो !
प्रेम  में  रखो  केवल  भावना , 
भावुकता  में  तो  केवल  शब्दों  का  खिलवाड़  होता  है !!
------------------- तनु थदानी