Saturday, August 22, 2015

सुलगती लकड़ियों सा जीवन

सुलगती लकड़ियों सा जीवन
तिल तिल मरती कराहती जिंदगियां ;
हतप्रभ हूँ देख
वृंदावन की हवा में
घुलती रोती प्यारी माँऐ !

छोड़ गये वही
जिन्हें सीने से लगा के पाला !
वृद्धा होना - विधवा होना -भूखो मरना
हर झुर्रियों से टपकती हैं
व्यथा की इक सी ही कथाऐं !

मेरी आंखें इकदम से हो गईं पत्थर
सूख गईं अचानक देख वृंदावन ;
कैसे रोयें ?
भला इतने आंसू वो कहाँ से लाये ??

दो पैरों की चलती फिरती लाशें
बूढ़ी काया वृंदावन में
अपनी ही सांसों से खुद को पिसती हैं ;
जब सुबुकती हैं तो आँसू नहीं रिसते ;
उन बेबस आँखों से
हमारी तुम्हारी माँ ही रिसती है !

चलो पत्र लिखे कृष्ण को
कि जीवन को जन्म देने वाली अभागिनों के हिस्से
दिया है अगर पीड़ा का दलदल
एक निवेदन है कि इनको
मौत की झपकी प्यार से आये !!
---------------------- तनु थदानी