वो तो नींद से भी लंबा सपना था ,
जिसमे पिता के मुंह पर ,
थूक का सैलाब फैला था ,
जिसमे बेटी पिता की गोद में जाने से कतराती है ,
कि , पिता उसे छूता है तो उसे डर लगता है , सहम जाती है !
नेपथ्य में असंख्य पीड़ाओं की कथाएँ हैं ,
मगर आगे नाटक कुछ और चल रहा होता है !
दर्शक चुपचाप बैठे देखते हैं ,
सुनते हैं पर समझते नहीं हैं ,
कि खिलखिलाहट के शोरगुल के पीछे भी कोई रोता है !
जब शर्म एक इतिहास बन जाती है ,
तब बेटियां अपने ही घरों में ,
अपने कमरों में दरवाजे की छिटकनी लगा कर सोती हैं !
क्यूँ हमने सतह छोड़ दी ?
क्यूँ डूब रहे हैं हम ??
ये सैलाब आया कहाँ से ???
ये तो आँसू हैं बेबसी के ,
ध्यान से देखो -आज पूरी सदी रोती है !!
चलो पुराना संदूक खोलते हैं ,
वही पुरानी किताब निकालते है,
पढ़ते हैं वही कहानी फिर से ,
जिसमे बेटियाँ परियों की कहानियाँ सुनती हैं ,
पिता की बाहों में झूलती हैं ,
बेधड़क पिता के कन्धों पे चढ़ जातीं हैं ,
फिर गिरतीं हैं - रोती हैं
सुबुकती अनवरत रोती बिटिया को चुप कराते - कराते ,
यकानक हँसते हुये पिता की आँखे भर आती हैं !!
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