मैं प्रेम की कविता नहीं लिखुंगा कभी ,
किसके लिये लिखूं ?
है कहाँ प्रेम ??
हमारे समाज में प्रेम मात्र कविता में बचा रह गया है !
अगर न रोने का वादा करो तो मैं दिखाऊंगा तुम्हे ,
प्रेम का क्षत - विक्षिप्त शव छपरा के अस्पताल में !
अभी तक मांओं के आंसुओ के निशान ताजा हैं ,
कभी ना रोने वाला पिता भी है बिलखता - रोता !
जारी है मौत की सरसराहट ,
एक बिस्तर से दूसरे बिस्तर ,
छटपटाती मासूम जिंदगियों के अगल - बगल !
क्या प्रेम है बचा हमारे समाज में ?
अगर होता तो ये दृश्य ना होता !!
नेताओं की खिली बाँछों में ,
राजनीति से प्रेम नजर आता है !
उस बनिये का पैसे से प्रेम समझ आता है !
दलाल दर दलाल कमीशन - प्रेम मंडराता है !
सभी व्यस्त हैं अपने प्रेम की परिभाषा को चुस्त रखने में !
ये भी कोई शोध का विषय है ,
कि गाँव का बच्चा मिड- डे मील क्यों खाता है ??
प्रेम -रस में डूबे शब्दों के लूटेरे ,
अध्यात्म की चाश्नी बेचने वाले हजारो डेरे ,
कितनी सहजता से आँखे मूंद निकल गयें सुबह -सुबह ,
उन्हें तो प्राणायाम करना था ना !!
मैं प्रेम के जज्बातों के साथ नहीं दिखुंगा कभी ,
किसके लिये दिखुं ?
है कहाँ प्रेम ??
तुम राजनीति करते लोग ,प्रवचन करते लोग ,व्यापार करते लोग
सब हो हत्यारे प्रेम के !!
मैं नहीं कह रहा ये सब ,
गौर से सुनना आवाज अभी तक गूंज रही है ,
प्रेम से वंचित वो गाँव का बच्चा
अस्पताल में मरने से पहले कह गया है !!