हम अपने व्यक्तिगत होते परिचय को
मान बैठते है उपलब्धि !
बच्चे के जन्म के साथ मिठाइयाँ बांटने
और किसी परिचित की मौत पर रो लेने की प्रक्रिया से
हम खुद को मानव साबित कर बैठते हैं !
क्यों नहीं रोती आँखे अपरिचित की मौत पर ?
क्यों हमारे खुश होने के मापदंड भी पहले से तय होते है ??
ता उम्र बिखराते चलते हैं सजीव- निर्जीव संबंध एवम साधन
नहीं समेट पाते अंतत : !
चलो प्रिय !
दिमाग की दीवारों को खुरचें
पूरा मवाद निकलने तक खुरचें
मुझे विश्वास है
पूरा मवाद निकलने पर ही हम सामान्य हो पायेंगे
और सामान्य होना ही तो होगी हमारी उपलब्धि !
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