Wednesday, March 20, 2013

तनु थदानी की कवितायें रुको tanu thadani ki kavitaayen RUKO

जिसे  हम  बचपन   से  जानते  हैं ,
जो  हमारे   साथ  बड़ा  होता  है ,
यकानक  कुछ  ज्यादा  बड़ा  होने  का  प्रयत्न  करता  दीखता  है ,
मतलब  को  बांधता  है ,
और  बातों  में  फेंकता  है  !
जो  बचपन  से  पहचानता  है ,
तब  यकानक  अपरिचित  हो  जाता   है ,
कबाड़  सी  जिम्मेदारियों  में  जब  हमें  फंसा   देखता  है !

ऐसा  क्यूँ  होता  है ,
कि , हम  अचानक  ही  बच्चे  से  बड़े  हो  जाते  हैं !
सम्बन्ध  बैठ  जाते  हैं ,
हमारे  आजू - बाजू   पैसे  खड़े  हो  जाते  हैं !

सर्वप्रथम  घरों  में  कमरे  बाँटते   हैं ,
फिर  रसोई ,
अंततः  घर  बाँट  खुश  हैं  होते ,
जब  गाँव  में  खेतों  का  करते  हैं  हिस्सा ,
माँ  - बाबूजी   गठरियों  की  तरह  चुपचाप  रहते  हैं ,
लगता  ही  नहीं  की  वे  हैं  रोते ,
आँखों  के  गड्ढों  को  हाथों  से  पाटते  हैं !
हम , जो  अपनी  आँखों   का  पानी  तक  बेच  देते  हैं ,
सूखता  है  गला ,  तब  ओस  चाटते  हैं !

ऐसा  यूँ  होता  है ,
कि  परिणामों  के  मेले  में 
इकठ्ठे  घूमते  हैं ,
कपडे  खरीदने  के  लिये  शर्म  बेचते  हैं !
जीवन  का   व्याकरण  तो  यूँ  हैं  रटते ,   जैसे  आदमी  नहीं  तोते  हैं ,
हाथों  में  हाथ  होने  के  बावजूद  हम , अचानक  गुम  होते  हैं  !

रुको !
देखो  सूजन  आ  गयी  शक्ल  पे ,
बायें  हाथ  ने  अभी   कल ही तो  मारा  था ,
आज  दायाँ  हाथ  उसे  सेकता  है !
पैसा  तो  हमने  पैदा  किया  था ,
आज  पैसों  ने  हमें  ही  खरीद  लिया !

हम  बिक  चुके  हैं  फिर  भी  बचने  की  शुरुवात  करते  हैं ,
चलो  , अपने- अपने  अस्तित्व  से ,
सर्वप्रथम  अपना- अपना   मैं  काटते  हैं  !




















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